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एक जीवन ऐसा भी - महात्मा ज्योतिबा फुले

     by हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन | Hindi Olympiad Foundation







महात्मा ज्योतिबा फुले

महात्मा ज्योतिबा फुले का जन्म 20 फरवरी, 1827 को पुणे (महाराष्ट्र) में हुआ था। इनके पिता गोविन्दराव जी फूलों की खेती से जीवन यापन करते थे, इस कारण  इनका परिवार फुले कहलाता था। महाराष्ट्र में उन दिनों छुआछूत की बीमारी चरम पर थी। अछूत जाति के लोगों को अपने चलने से अपवित्र हुई सड़क की सफाई के लिए कमर में पीछे की ओर लम्बा झाड़ू बांधकर तथा थूकने के लिए गले में एक लोटा लटकाकर चलना होता था। एक वर्ष की अवस्था में उनकी मां का देहान्त हो गया। अछूत बच्चे उन दिनों विद्यालय नहीं जाते थे, पर समाज के विरोध के बावजूद गोविन्दराव ने ज्योति को शिक्षा प्राप्त करने के लिए विद्यालय भेजा। खेत में फूलों की देखभाल करते हुए भी वे पढ़ने का समय निकाल लेते थे, इस प्रकार वे सातवीं तक पढ़े।

14 वर्ष की अवस्था में ज्योतिबा का विवाह आठ वर्षीय सावित्री बाई से हो गया। पढ़ाई में रुचि देखकर उनके पड़ोसी मुंशी गफ्फार तथा पादरी लेजिट ने उन्हें मिशनरी विद्यालय में भर्ती करा दिया। 
वहां सभी जातियों के छात्रों से उनकी मित्रता हुई। एक बार ज्योतिबा के एक ब्राह्मण मित्र ने उन्हें अपने विवाह में बुलाया, वहां कुछ कट्टरपन्थी पंडितों ने उन्हें बुरी तरह अपमानित किया। इससे नवयुवक ज्योतिबा के मन को बहुत चोट लगी और उन्होंने समाज में व्याप्त असमानता तथा कुरीतियों को समाप्त करने का संकल्प ले लिया।

एक बार ज्योतिबा अपने मित्र सदाशिव गोविन्द से मिलने अहमदनगर गये, वहां ईसाइयों द्वारा संचालित स्त्री पाठशालाओं से वे बहुत प्रभावित हुए. पुणे आकर ज्योति ने अपने मित्र भिड़े के घर में स्त्री पाठशाला खोल दी। बड़ी संख्या में निर्धन लड़कियां वहां आने लगीं। कट्टरपन्थियों ने इसका विरोध किया। 
जब सावित्रीबाई पढ़ने जाती, तो वे उस पर कूड़ा और पत्थर फेंकते, उन्होंने गोविन्दराव जी को मजबूर किया कि वे ज्योति को घर से अलग कर दें। इस पर गोविन्द जी ने उन्हें अहमदनगर बुला लिया, वहां उनकी पत्नी ने सावित्री को घर पर पढ़ाया। पुणे आकर गोविन्द व अण्णा साहब आदि समाजसेवियों के सहयोग से उन्होंने कई विद्यालय खोले। सावित्रीबाई ने यह सारा काम संभाल लिया।

ज्योतिबा फुले ने समाज जागरण और छुआछूत निवारण के लिए 23 सितम्बर, 1873 को पुणे में ‘सत्यशोधक समाज’ की स्थापना की। इनके कार्यकर्ता सिर पर साफा, गले में ढोल तथा कन्धे पर कम्बल रखते थे। ढोल बजाकर वे जनजागरण करते थे। उनका मत था कि पुनर्जन्म, मूर्तिपूजा, खर्चीले विवाह और अन्धविश्वास छोड़ने से ही उनका उद्धार होगा। ज्योतिबा ने वर्ष 1860 में विधवाओं तथा उनके बच्चों के लिए एक आश्रम भी खोला।

वर्ष 1876 में वे पुणे नगरपालिका के सदस्य मनोनीत हुए। उन्होंने गरीब बस्तियों में शराबखानों के बदले पानी, पुस्तकालय, विद्यालय आदि खुलवाये तथा गरीबों को सस्ते में दुकानें दिलवायीं। नगरपालिका द्वारा ब्राह्मणों व भिखारियों को दी जाने वाली सरकारी सहायता रोककर उससे साहित्यकारों को पुरस्कृत करवाया। पुणे नगर के आसपास उन्होंने अनेक सुन्दर बाग लगवाये। उन्होंने मराठी में ब्राह्मणांचे कसब, शिवाजी चा पोवाड़ा, शेतक यात्रा आसूड, इशारा, कैफियत… आदि अनेक पुस्तकें लिखीं तथा ‘सतसार’ नामक पत्रिका निकाली। साठ वर्ष का होने पर मुम्बई में उनका सार्वजनिक अभिनन्दन किया गया और उन्हें ‘महात्मा’ की उपाधि दी गयी। 21 नवम्बर, 1890 को इस महान समाज सुधारक का देहान्त हो गया।


 महात्मा ज्योतिबा फुले के प्रेरक प्रसंग 

अछूतो के लिए शिक्षा 

विषमता के खिलाफ लड़ाई में ज्योतिबा का सबसे बड़ा हथियार शिक्षा थी। उन्हें पता था कि विषमता के साथ-साथ अन्य सभी लड़ाईयां शिक्षा के दम पर ही जीती जा सकती हैं। जीवन के बाद के वर्षों में, जुलाई 1883 के आसपास वह लिख कर गए हैं-

 "विद्या बिना मति गयी। मति बिना नीति गयी। 
 नीति बिना गति गयी। गति बिना वित्त गया। 
 वित्त बिना शुद्र गए। इतने अनर्थ , एक अविद्या ने किए।"

ज्योतिबा ने यह लड़ाई पूना से शुरू की। पूना में उन्होंने 1848 के अगस्त महीने में अछूत बच्चों के लिए स्कूल शुरू किया जो महाराष्ट्र ही नहीं, पूरे देश में अपने ढंग का पहला स्कूल था। यह ऐसा काम था जो इस देश के 3000 सालों के इतिहास में नहीं हुआ था। अछूत समाज के लिए पहला स्कूल ज्योतिबा के कारण खुल सका।

ज्योतिबा और जल संरक्षण के प्रयास 

ज्योतिबा की यह पहल उस समय के अछूतों की समस्या से जुड़ी हुई है। पूना में उस समय स्थान स्थान पर पीने के पानी के छोटे बड़े हौज हुआ करते थे, जिन पर पेशवाओं का अधिकार होता था। इन हौज पर महार, चमार, भंगी आदि शुद्र जाति के लोग पानी नहीं भर सकते थे। 
अक्सर पड़ने वाले सूखे या गर्मियों में होने वाली पानी की कमी के कारण हर साल किसी न किसी घर से कोई न कोई जरूर मरता था। उस समय की नगरपालिका भी कोई स्थायी इंतज़ाम नहीं कर पा रही थी।

पानी की कुछ बूंदों के लिए अछूतों की जो हालत थी उसे देखना और सहना ज्योतिबा के लिए संभव नहीं था। 1868 में उन्होंने अपने घर के पास हौज की स्थापना की और उसे अछूतों के लिए खुला कर दिया। वहां कोई भी किसी भी समय आकर पानी पी सकता था।

उन्होंने अछूतों को जल संरक्षण के लिए भी प्रेरित किया। उन्हें छोटे-बड़े जलाशयों, घर पर पानी इकठ्ठा करने की तकनीकों तथा पानी बचाने के तरीकों के बारे में सिखाया। इसके अलावा ज्योतिबा ने ‘जल-नीति’ का विकास भी किया और ब्रिटिश सरकार से इसे लागू करने का अनुरोध किया। 
स्थानीय स्तर पर उन्होंने ‘जल-नीति’ का अध्ययन किया और किसानों को मिट्टी और खनिजों के क्षरण के बारे में शिक्षित किया। उनका महत्वपूर्ण सुझाव सिंचाई के लिए ‘टैप सिस्टम’ को लेकर था जिसे इज़राइल ने 1948 में अपने यहाँ लागू किया। 
सिंचाई के ‘टैप सिस्टम’ द्वारा न केवल मिट्टी और खनिजों का क्षरण रोका जा सकता है बल्कि जल का भी अधिकतम उपयोग किया जा सकता है।

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