Skip to main content

सफलता के सूत्र






सफलता के सूत्र


एक बार की बात है एक गुरु के दो शिष्य थे। एक पढ़ाई में बहुत तेज और विद्वान था और दूसरा फिसड्डी।

पहले शिष्य की हर जगह प्रसंशा और सम्मान होता था। जबकि दूसरे शिष्य की लोग उपेक्षा करते थे।

एक दिन रोष में दूसरा शिष्य गुरू जी के जाकर बोला, “गुरूजी! मैं उससे पहले से आपके पास विद्याध्ययन कर रहा हूँ। फिर भी आपने उसे मुझसे अधिक शिक्षा दी।” गुरुजी थोड़ी देर मौन रहने के बाद बोले, “पहले तुम एक कहानी सुनो।

एक यात्री कहीं जा रहा था। रास्ते में उसे प्यास लगी। थोड़ी दूर पर उसे एक कुआं मिला। कुएं पर बाल्टी तो थी लेकिन रस्सी नही थी। इसलिए वह आगे बढ़ गया। थोड़ी देर बाद एक दूसरा यात्री उस कुएं के पास आया। कुएं पर रस्सी न देखकर उसने इधर-उधर देखा।

पास में ही बड़ी बड़ी घास उगी थी। उसने घास उखाड़कर रस्सी बटना प्रारम्भ किया। थोड़ी देर में एक लंबी रस्सी तैयार हो गयी। जिसकी सहायता से उसने कुएं से पानी निकाला और अपनी प्यास बुझा ली।

गुरु जी ने उस शिष्य से पूछा, अब तुम मुझे यह बताओ कि प्यास किस यात्री को ज्यादा लगी थी? शिष्य ने तुरंत उत्तर दिया कि दूसरे यात्री को। गुरूजी फिर बोले, “प्यास दूसरे यात्री को ज्यादा लगी थी। यह हम इसलिए कह सकते हैं क्योंकि उसने प्यास बुझाने के लिए परिश्रम किया। उसी प्रकार तुम्हारे सहपाठी में ज्ञान की प्यास है। जिसे बुझाने लिए वह कठिन परिश्रम करता है। जबकि तुम ऐसा नहीं करते।”

शिष्य को अपने प्रश्न का उत्तर मिल चुका था। वह भी कठिन परिश्रम में जुट गया।


यदि आप को सफलताओं की चाहत हो तो कठोर परिश्रम कीजिए क्योंकि 
कठोर परिश्रम और कार्य  में निरंतर प्रयास ही सफलता की कुंजी है ।

Comments

Popular posts from this blog

स्वामी विवेकानंद के जीवन से जुड़ी एक अद्भुत कहानी

by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |  Hindi Olympiad Foundation ये उस समय की बात है जब स्वामी विवेकानंद अमेरिका में थे। एक बार वे भ्रमण पर निकले एक नदी के पास से गु ज रते हुए उन्होंने कुछ लड़कों को देखा, वे सभी पुल पर खड़े थे और वहां से नदी के पानी में बहते हुए अंडों के छिलकों पर, बंदूक से निशाना लगाने का प्रयास कर रहे थे। लेकिन किसी भी लड़के का एक भी निशाना सही नहीं लग रहा था, यह देख वे उन लड़कों के पास गए और उनसे बंदूक लेकर खुद निशाना लगाने लगे। उन्होंने पहला निशाना लगाया, वो सीधे जाकर अंडो के छिलकों पर लगा फिर उन्होंने दूसरा निशाना लगाया, वो भी सटीक लगा। फिर एक के बाद एक उन्होंने बारह निशाने लगाये, सभी निशाने बिल्कुल सही जगह जाकर लगे। यह देख वे सभी लड़के आश्चर्यचकित रह गए, उन्होंने स्वामी जी से पूछा, “स्वामी जी, आप इतना सटीक निशाना कैसे लगा पाते हैं ? भला कैसे कर पाते हैं आप ये?” इस पर स्वामी विवेकानन्द ने उत्तर दिया, “असंभव कुछ भी नहीं है ।  तुम जो भी काम कर रहे हो, अपना दिमाग पूरी तरह से बस उसी एक काम में लगा दो ।  यदि पाठ पढ़ रहे हो, तो सिर्फ पाठ के बारे में...

एक जीवन ऐसा भी - अहिल्याबाई होल्कर

           by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation तपस्वी राजमाता अहल्याबाई होल्कर भारत में जिन महिलाओं का जीवन आदर्श, वीरता, त्याग तथा देशभक्ति के लिए सदा याद किया जाता है,  उनमें रानी अहिल्याबाई होल्कर का नाम प्रमुख है। उनका जन्म 31 मई, 1725 को ग्राम छौंदी (अहमदनगर, महाराष्ट्र) में एक साधारण कृषक परिवार में हुआ था। इनके पिता श्री मनकोजी राव शिन्दे परम शिवभक्त थे। अतः यही संस्कार बालिका अहल्या पर भी पड़े। एक बार इन्दौर के राजा मल्हारराव होल्कर ने वहां से जाते हुए मन्दिर में हो रही आरती का मधुर स्वर सुना। वहां पुजारी के साथ एक बालिका भी पूर्ण मनोयोग से आरती कर रही थी। उन्होंने उसके पिता को बुलवाकर उस बालिका को अपनी पुत्रवधू बनाने का प्रस्ताव रखा। मनकोजी राव भला क्या कहते, उन्होंने सिर झुका दिया। इस प्रकार वह आठ वर्षीय बालिका इन्दौर के राजकुंवर खांडेराव की पत्नी बनकर राजमहलों में आ गयी। इन्दौर में आकर भी अहल्या पूजा एवं आराधना में रत रहती। कालान्तर में उन्हें दो पुत्री तथा एक पुत्र की प्राप्ति हुई। 175...

एक जीवन ऐसा भी - गुरु अर्जुन देव

                                    by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation गुरु अर्जुन देव का बलिदान हिन्दू धर्म और भारत की रक्षा के लिए अनेक वीरों एवं महान् आत्माओं ने अपने प्राण अर्पण किये हैं, पर उनमें भी सिख गुरुओं के बलिदान का उदाहरण विशेष महत्व रखता है। पाँचवे गुरु श्री अर्जुनदेव जी ने जिस प्रकार आत्मार्पण किया, उससे हिन्दू समाज में अतीव जागृति का संचार हुआ। सिख पन्थ का प्रादुर्भाव गुरु नानकदेव जी द्वारा हुआ। उनके बाद यह धारा गुरु अंगददेव, गुरु अमरदास से होते चौथे गुरु रामदास जी तक पहुँची। रामदास जी के तीन पुत्र थे। एक बार उन्हें लाहौर से अपने चचेरे भाई सहारीमल के पुत्र के विवाह का निमन्त्रण मिला। रामदास जी ने अपने बड़े पुत्र पृथ्वीचन्द को इस विवाह में उनकी ओर से जाने को कहा, पर उसने यह सोचकर मना कर दिया कि कहीं इससे पिताजी का ध्यान मेरी ओर से कम न हो जाये। उसके मन में यह इच्छा भी थी कि पिताजी के बाद गुरु गद्दी मुझे ही मिलनी चाहिए। इसके बाद गुरु रा...

एक जीवन ऐसा भी - मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम

                                 by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation मिसाइल मैन डॉ. अब्दुल कलाम क्या हम कल्पना कर सकते हैं कि उस युवक के मन पर क्या बीती होगी, जो वायुसेना में विमान चालक बनने की न जाने कितनी सुखद आशाएं लेकर देहरादून गया था; पर परिणामों की सूची में उसका नाम नवें क्रमांक पर था, जबकि चयन केवल आठ का ही होना था। कल्पना करने से पूर्व हिसाब किताब में यह भी जोड़ लें कि मछुआरे परिवार के उस युवक ने नौका चलाकर और समाचारपत्र बांटकर जैसे-तैसे अपनी शिक्षा पूरी की थी। देहरादून आते समय केवल अपनी ही नहीं, तो अपने माता-पिता और बड़े भाई की आकांक्षाओं का मानसिक बोझ भी उस पर था, जिन्होंने अपनी  अनेक आवश्यकताएं ताक पर रखकर उसे पढ़ाया था, पर उसके सपने धूल में मिल गये। निराशा के इन क्षणों में वह जा पहुंचा ऋषिकेश, जहां जगतकल्याणी मां गंगा की पवित्रता, पूज्य स्वामी शिवानन्द के सान्निध्य और श्रीमद्भगवद्गीता के सन्देश ने उसेे नये सिरे से कर्मपथ पर अग्रसर किया। उस...

एक जीवन ऐसा भी - समाज सुधारक राजा राममोहन राय

                                   by  हिंदी ओलंपियाड फाउंडेशन  |   Hindi Olympiad Foundation समाज सुधारक राजा राममोहन राय हिन्दू समाज में सीता, सावित्री, अनसूया आदि सती-साध्वी स्त्रियों की सदा से पूजा होती रही है। सती का अर्थ है मन, वचन, कर्म से अपने पतिव्रत को समर्पित नारी; पर जब भारत में विदेशी और विधर्मियों के आक्रमण होने लगे, तो मुख्यतः राजस्थान में क्षत्रिय वीरांगनाओं ने पराजय की स्थिति में शत्रुओं के हाथों में पड़ने की बजाय आत्मदाह कर प्राण देने का मार्ग चुना।  इसके लिए वे एक बड़ी चिता सजाकर सामूहिक रूप से उसमें बैठ जाती थीं। वीर पुरुष भी पीछे नहीं रहते थे। वे सब केसरिया वस्त्र पहनकर, किले के फाटक खोलकर रणभूमि में चले जाते थे। इस प्रथा को ही ‘जौहर’ कहा गया। कुछ नारियाँ अपने वीरगति प्राप्त पति के शव के साथ चिता पर बैठ जाती थीं। इसके लिए भी ‘सती’ शब्द ही रूढ़ हो गया। कुछ और समय बीतने के बाद देश के अनेक भागों (विशेषकर पूर्वांचल) में सती प्रथा का रूप विकृत हो गया। अ...